राम भजा सो जीता जग में
राम भजा सो जीता जग में
राम भजा सो जीता जग में,
राम भजा सो जीता ॥
हाथ सुमरनी, पेट कतरनी, पढ़त भगवत गीता ॥
हृदय शुद्ध किया नहीं बौरे, कहत सुनत दिन बीता ॥
आन देव की पूजा कीन्ही, गुरु से रहा अमीता ॥
धन, यौवन सब यहीं रहेगा, अंत समय चले रीता ॥
बावरिया ने भाँवर डारी, मोह डाल सब कीता ॥
कहें कबीर काल धर खैय्हें, जैसे मृग को चीता ॥
~कबीर साहब
“राम भजा सो जीता जग में,
राम भजा सो जीता॥”
-
राम भजा → जो व्यक्ति राम (सत्य, मुक्ति, आनंद, ब्रह्म) का भजन करता है
(राम को भजना -> सत्य के लिए आत्मप्रेम, श्रेस्ठ्ता, उत्तमता में लीन हो जाना)
-
सो जीता जग में → वही वास्तव में जीवन में विजयी होता है।
(सत्य के बाद तो अहंकार बचता ही नहीं है - राम भजा सो जीता जग में)
-
भावार्थ:
जो व्यक्ति ईश्वर को स्मरण करता है, अपने भीतर सत्य का आलोक रखता है — वही जीवन में सफल है। संसार की जीत हार नहीं, भीतर की सत्यनिष्ठा ही असली विजय है।
“हाथ सुमरनी, पेट कतरनी,
पढ़त भगवत गीता॥”
- हाथ सुमरनी → हाथ में माला (रुद्राक्ष या जप माला) लेकर,
- पेट कतरनी → इच्छाओं को संयमित (restrained) रखते हुए,
- पढ़त भगवत गीता → भगवत गीता का पाठ करता है ??
- भावार्थ:
बाहरी पूजा या पाठ तभी सार्थक है जब जीवन में संयम हो और मन भीतर केन्द्रित हो। केवल माला फेरने या गीता पढ़ने से नहीं, बल्कि उसके मर्म को जीने से ज्ञान मिलता है।
“हृदय शुद्ध किया नहीं बौरे,
कहत सुनत दिन बीता॥”
-
हृदय शुद्ध किया नहीं बौरे → हृदय को शुद्ध नहीं किया मूर्ख
(हृदय शुद्ध नहीं करना -> मन के अंदर से निम्न स्तर की चीजों को न हटाना)
- कहत सुनत दिन बीता → व्यर्थ बोलने-सुनने में दिन निकाल देता है।
- भावार्थ:
बिना अंतःशुद्धि के बाहरी धार्मिकता भ्रम है। मन यदि विकारमुक्त नहीं हुआ तो सारे उपदेश व्यर्थ हैं। आध्यात्मिकता का आरंभ भीतर की शुद्धि से होता है।
“आन देव की पूजा कीन्ही,
गुरु से रहा अमीता॥”
- आन देव की पूजा कीन्ही → जो अन्य देवताओं की पूजा में लीन है
- गुरु से रहा अमीता → वह अपने गुरु के ज्ञान से वंचित रहता है।
- भावार्थ:
कबीर का “गुरु” केवल व्यक्ति नहीं, बल्कि सत्य का प्रकाश है। जो बाह्य देवताओं या प्रतीकों में उलझा है, वह गुरु मर्म — आत्मज्ञान — तक नहीं पहुँचता।
“धन, यौवन सब यहीं रहेगा,
अंत समय चले रीता॥”
- धन, यौवन सब यहीं रहेगा → धन, यौवन, और भोग सब यहीं रह जाते हैं
- अंत समय चले रीता → अंत में मनुष्य खाली जाता है।
- भावार्थ:
जीवन की सारी अस्थायी संपत्तियाँ शरीर के साथ मिट जाती हैं। केवल आत्मजागरूकता ही अमर है। इस क्षणभंगुरता को जानना ही विवेक का आरंभ है।
“बावरिया ने भाँवर डारी,
मोह डाल सब कीता॥”
-
बावरिया ने भाँवर डारी → मोह में फंसकर भटक गया
(माया ने फँसने के लिए मोय को डाला)
- मोह डाल सब कीता → सारे काम मोहवश किए
- भावार्थ:
मनुष्य संसार की इच्छाओं में फँसकर अपने स्वरूप को भूल गया है। यह मोह-माया ही अज्ञान का मूल कारण है।
“कहें कबीर काल धर खैय्हें,
जैसे मृग को चीता॥”
- कहें कबीर काल धर खैय्हें → मृत्यु कभी भी पकड़ सकती है
- जैसे मृग को चीता → जैसे चीता हिरन को झपट लेता है
- भावार्थ:
मृत्यु अनिवार्य सत्य है। इसलिए जो समय रहते सत् की ओर नहीं मुड़ता, वह व्यर्थ चला जाता है। जानने वाला व्यक्ति मृत्यु से पूर्व ही अमर हो जाता है — अपने आत्मस्वरूप को पहचानकर।