अब हम गुम हुए, गुम हुए, गुम हुए प्रेम नगर की सैर
अब हम गुम हुए, गुम हुए, गुम हुए प्रेम नगर की सैर
अपने आप नूं खोज रहा हूं ना सिर हाथ ना पैर
किथै पकड़ लै चलै घरां थीं कौन करै निरवैर
प्रेम प्रेम सब कोई कहे, प्रेम ने चिन्हे कोय।
जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय।।
खुदी खोई अपना आप चीना तब होई कुल खैर
बुल्ला साईं दोई जहानी कोई न दिखता गैर
प्रेम प्याला जो पिए, सीस दक्षिणा देय।
लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय।।
~ बाबा बुल्लेशाह, कबीर साहब
“अब हम गुम हुए, गुम हुए, गुम हुए प्रेम नगर की सैर”
- अब हम गुम हुए, प्रेम नगर की सैर → अब मैं खो गया हूँ — प्रेम के नगर में प्रवेश करते ही ‘मैं’ खो जाता है, क्योंकि प्रेम में अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं।
- भावार्थ:
जब प्रेम सच्चा होता है, तो व्यक्ति गायब हो जाता है। प्रेम वह जगह है जहाँ खोजने वाला खुद ही मिट जाता है — केवल प्रेम ही शेष रहता है। यही गुम होना परम मिलन है।
“अपने आप नूं खोज रहा हूं ना सिर हाथ ना पैर”
- अपने आप नूं खोज रहा हूं → स्वयं को ही खोजने की यात्रा जारी है।
- ना सिर हाथ ना पैर → पुराना “मैं” अब पहचान में नहीं आता।
- भावार्थ:
आत्मखोज में व्यक्तित्व बिखर जाता है। जैसे-जैसे भीतर उतरते हैं, पुरानी पहचानें मिट जाती हैं। न सिर बचता है, न ढांचा — बस एक अज्ञेय अस्तित्व महसूस होता है।
“किथै पकड़ लै चलै घरां थीं कौन करै निरवैर”
- किथै पकड़ लै चलै घरां थीं → अब कौन है जो इस खोए हुए को उसके घर (सत्य) तक पहुँचा दे।
- कौन करै निरवैर → कौन है जो बिना बैर, निष्कपट प्रेम के साथ साथ चले।
- भावार्थ:
यह पुकार है — सच्चा गुरु चाहिए जो निरवैर हो, जो स्वयं पार हों, वही पार करा सकते हैं। संसार में हर कोई अपने स्वार्थ के घेरे में फँसा है; प्रेम में कोई बैर नहीं होता।
“प्रेम प्रेम सब कोई कहे, प्रेम ने चिन्हे कोय।
जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय॥”
- प्रेम प्रेम सब कोई कहे → हर कोई प्रेम का नाम जपता है,
- प्रेम ने चिन्हे कोय → लेकिन असल में प्रेम को कोई पहचानता नहीं।
- जा मारग साहब मिले → जिस राह से परम सत्य (साहब) मिल जाए,
- प्रेम कहावे सोय → वही सच्चा प्रेम कहा जाता है।
- भावार्थ:
प्रेम कोई भावना नहीं, साधना है। जो मार्ग ईश्वर तक ले जाए, वही प्रेम है। बाकी जो केवल ‘मैं’ को सहलाए, वह आसक्ति है, प्रेम नहीं।
“खुदी खोई अपना आप चीना तब होई कुल खैर”
- खुदी खोई → जब अहंकार मिटा।
- अपना आप चीना → तब सच्चा स्व पहचाना।
- तब होई कुल खैर -> तब उसे हर ओर से शांति और कल्याण मिलता है
- भावार्थ:
अहंकार खत्म होते ही मूल स्व का दर्शन होता है। जब ‘मैं’ मिटता है, तब ही सच्ची भलाई (कुल खैर) होती है। जब तक खुदी है, प्रेम नहीं जन्मता।
“बुल्ला साईं दोई जहानी कोई न दिखता गैर”
- दोई जहानी कोई न दिखता गैर → अब कोई “दूसरा” नहीं लगता — न इस लोक में, न उस लोक में।
- भावार्थ:
प्रेम का अर्थ है, सारा भेद मिट गया। अब ‘मैं’ और ‘तुम’ बाकी नहीं रहे। जो भी दिखता है, वही एक है — वही ब्रह्म, वही साहब। प्रेम दृष्टि को एकरस कर देता है।
“प्रेम प्याला जो पिए, सीस दक्षिणा देय।
लोभी सीस न दे सके, नाम प्रेम का लेय॥”
- प्रेम प्याला जो पिए → जो प्रेम का अमृत पिए।
- सीस दक्षिणा देय → उसे अपने सिर (अहंकार, पहचान) की बलि देनी पड़ती है।
- लोभी सीस न दे सके → जो स्वार्थी है, वह समर्पण नहीं कर पाता।
- नाम प्रेम का लेय → वह केवल ‘प्रेम’ शब्द का दिखावा करता है।
- भावार्थ:
सच्चा प्रेम बलिदान मांगता है। जब तक जीवन, अहंकार और चयन अपने हैं, तब तक प्रेम दूर है। प्रेम में सब कुछ अर्पित हो जाता है — बस शेष रह जाता है वह।