चलना है दूर मुसाफ़िर
चलना है दूर मुसाफ़िर,
अधिक नींद क्यों सोए रे ।।
चेत-अचेत मन सोच बावरे,
अधिक नींद क्यों सोए रे।
काम-क्रोध-मद-लोभ में फँस के,
उमरिया काहे खोए रे ।।१।।
सिर पर माया मोह की गठरी,
संग मौत तेरे होए रे।
वो गठरी तेरी बीच में छिन गई,
सिर पकड़ काहे रोए रे ।।२।।
रस्ता तो वह खूब विकट है,
चलना अकेला होए रे।
साथ तेरे कोई न चलेगा,
किसकी आस तू बोए रे ।।३।।
नदिया गहरी नाव पुरानी,
किस विधि पार तू होए रे।
कहें कबीर सुनो भई साधो,
ब्याज के धोखे मूल मत खोए रे ।।४।।
~ कबीर साहब
“चलना है दूर मुसाफ़िर, अधिक नींद क्यों सोए रे ।।”
- चलना है दूर मुसाफ़िर → हे यात्री! तुम्हें बहुत लंबा रास्ता तय करना है (आध्यात्मिक यात्रा या मृत्यु की ओर जीवन-यात्रा)
- अधिक नींद क्यों सोए रे → फिर इतनी गहरी नींद (आलस्य / अज्ञान) में क्यों सोया है?
भावार्थ: जीवन एक यात्रा है, जो अंत की ओर बढ़ रही है। समय कम है, फिर भी लोग अज्ञान और मोह में सोए हुए हैं।
“चेत-अचेत मन सोच बावरे, अधिक नींद क्यों सोए रे।
काम-क्रोध-मद-लोभ में फँस के,
उमरिया काहे खोए रे ।।१।।”
- चेत-अचेत मन सोच बावरे → मन कभी जागता है, कभी सोता है, और उलझा रहता है पागलपन में
- काम-क्रोध-मद-लोभ में फँस के → वासना, ग़ुस्सा, अहंकार और लालच में फँसकर
- उमरिया काहे खोए रे → अपनी पूरी उम्र क्यों बर्बाद कर रहा है?
भावार्थ: मनुष्य अपने जीवन को विकारों में गंवा रहा है। चेतना और अचेतनता के बीच झूलते हुए वह जीवन का असली उद्देश्य भूल जाता है।
“सिर पर माया मोह की गठरी, संग मौत तेरे होए रे।
वो गठरी तेरी बीच में छिन गई,
सिर पकड़ काहे रोए रे ।।२।।”
- सिर पर माया मोह की गठरी → तूने अपने सिर पर माया और मोह का बोझ उठा रखा है
- संग मौत तेरे होए रे → लेकिन मृत्यु तेरे साथ हर समय चल रही है
- वो गठरी तेरी बीच में छिन गई → वो माया एक पल में छिन जाएगी (मृत्यु के समय)
- सिर पकड़ काहे रोए रे → तब सिर पकड़कर क्यों पछताएगा?
भावार्थ: जब मृत्यु आएगी, तो सारी माया छिन जाएगी। तब पछताने का कोई लाभ नहीं होगा। अभी जाग जा।
“रस्ता तो वह खूब विकट है, चलना अकेला होए रे।
साथ तेरे कोई न चलेगा,
किसकी आस तू बोए रे ।।३।।”
- रास्ता तो वह खूब विकट है → जीवन के बाद का रास्ता (मृत्यु के बाद की यात्रा) बहुत कठिन है
- चलना अकेला होए रे → उस रास्ते पर तुझे अकेले ही चलना होगा
- साथ तेरे कोई न चलेगा → कोई भी तेरे साथ नहीं जाएगा
- किसकी आस तू बोए रे → फिर तू किसकी उम्मीद लगाकर बैठा है?
भावार्थ: मृत्यु के बाद आत्मा को अकेले ही यात्रा करनी होती है। इस संसार के रिश्ते-नाते साथ नहीं जाते, इसलिए अपने उद्धार की तैयारी स्वयं कर।
“नदिया गहरी नाव पुरानी, किस विधि पार तू होए रे।
कहें कबीर सुनो भई साधो,
ब्याज के धोखे मूल मत खोए रे ।।४।।”
- नदिया गहरी नाव पुरानी → संसार रूपी नदी गहरी है और शरीर (नाव) बूढ़ा और कमजोर है
- किस विधि पार तू होए रे → फिर तू इस संसार से किस उपाय से पार जाएगा?
- कहें कबीर सुनो भई साधो → कबीर कहते हैं: सुनो हे साधु!
- ब्याज के धोखे मूल मत खोए रे → ब्याज (माया) के चक्कर में अपना मूल (असली जीवन / आत्मा / ईश्वर) मत खो देना
भावार्थ: यह संसार गहन है और जीवन की नैया डगमग है। कबीर चेताते हैं कि छोटे-छोटे सुख (ब्याज) के पीछे भागते हुए अपने मूल उद्देश्य — आत्मज्ञान और परमात्मा से मिलन — को मत खो देना।
🪔 संपूर्ण भावार्थ:
कबीर इस भजन में मनुष्य को चेताते हैं कि वह सोया हुआ है — अज्ञान, माया और विकारों की नींद में। जीवन क्षणभंगुर है, और मृत्यु निश्चित है। फिर भी हम मोह, रिश्ते, लालच, और सांसारिक सुखों में पड़े हैं। अंत समय कोई साथ नहीं देगा, और तब पछताना शेष रहेगा। इसीलिए अभी जागो — आत्मज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलो।