जो मैं बोरा तो राम तोरा
जो मैं बौरा तो राम तोरा
जो मैं बौरा तो राम तोरा
[[लोग मरम का जाने मोरा]]।
[[मैं बौरी मेरे राम भरतार]]
ता कारण रचि करूँ स्यंगार।
माला तिलक पहरि मन माना
[[लोगनि राम खिलौना जाना]]।
[[थोड़ी भगति बहुत अहंकारा]]
ऐसे भगता मिलै अपारा।
[[लोग कहें कबीर बौराना]]
कबीर का मरम राम जाना।
~ कबीर साहब
“जो मैं बौरा तो राम तोरा,
लोग मरम का जाने मोरा।”
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जो मैं बौरा तो राम तोरा → अगर मैं पागल हुआ हूँ, तो यह पागलपन राम (सत्य) का है।
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लोग मरम का जाने मोरा → लोग क्या जानें इस रहस्य को, क्योंकि यह अनुभूति भीतर की है।
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भावार्थ:
कबीर कह रहे हैं — सांसारिक लोग भक्ति को पागलपन समझते हैं, क्योंकि उन्होंने उस रस को चखा नहीं। यह ‘बौराना’ नहीं, बल्कि अहंकार का विसर्जन है — एक ऐसा स्थिर पागलपन जो जागृति लाता है।
“मैं बौरी मेरे राम भरतार,
ता कारण रचि करूँ स्यंगार।”
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मैं बौरी मेरे राम भरतार → मैं अपने राम की दुल्हन हूँ, उसी की हुई हूँ।
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ता कारण रचि करूँ स्यंगार → उसी प्रेम में अपने को सजाती हूँ — मन, वचन और कर्म से।
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भावार्थ:
यह स्त्री-भाव भक्ति का मूल है — समर्पण का भाव। जब साधक को राम पति-स्वरूप लगते हैं, तो जीवन उनका श्रृंगार बन जाता है। कर्म, विचार, भक्ति — सब प्रेम के अनुष्ठान बन जाते हैं।
“माला तिलक पहरि मन माना,
लोगनि राम खिलौना जाना।”
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माला तिलक पहरि मन माना → भक्त बाहरी चिह्नों से नहीं, भीतर की भावना से जुड़ा है।
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लोगनि राम खिलौना जाना → लेकिन जगत ने राम को भी एक खिलौना बना लिया — एक दिखावा।
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भावार्थ:
धर्म अब शोभा का आभूषण बन गया है। जो भीतर नहीं सजा, वह बाहर माला और तिलक पहनकर भी साधक नहीं बनता। कबीर व्यंग्य कर रहे हैं — भक्त का हृदय जहाँ सच्चा है, वहाँ आडंबर की ज़रूरत नहीं।
“थोड़ी भगति बहुत अहंकारा,
ऐसे भगता मिलै अपारा।”
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थोड़ी भगति बहुत अहंकारा → आज लोगों की भक्ति में थोड़ा प्रेम है, बहुत दिखावा और अहंकार।
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ऐसे भगता मिलै अपारा → ऐसे झूठे भक्तों की भीड़ है।
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भावार्थ:
यह वही भ्रम है जिसमें साधना अहंकार का नया रूप बन जाती है। जितना झुकना चाहिए, उतना ही सिर ऊँचा रहता है। कबीर कहते हैं — जहाँ ‘मैं’ बचा है, वहाँ राम नहीं।
“लोग कहें कबीर बौराना,
कबीर का मरम राम जाना।”
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लोग कहें कबीर बौराना → लोगों को लगता है कबीर सनकी है, क्योंकि वह उनकी समझ से परे बातें करता है।
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कबीर का मरम राम जाना → लेकिन जिसे कबीर ने जाना है, वह सत्य है — अकेला राम।
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भावार्थ:
यह पागलपन वही जागृति है जो सामान्य मन को उलट देती है। कबीर सबकी दृष्टि में अजीब हैं, क्योंकि उन्होंने वहाँ तक देखा है जहाँ तक दूसरों की दृष्टि नहीं पहुँचती।
सार (आचार्य प्रशांत-शैली में):
कबीर कह रहे हैं — जब सत्य प्रकट होता है, तब संसार तुम्हें ‘पागल’ कहेगा। जो भीतर प्रेम से भरा है, उसे बाहर का हिसाब नहीं सूझेगा। यह पागलपन मूर्खता नहीं, बुद्धि का अंत है; यह आत्म-लय है। जहाँ थोड़ी भक्ति और ज्यादा अहंकार है, वहाँ केवल सजावट बचेगी — सार नहीं। सच्चा साधक भीतर सजता है, मौन में।