मन मस्त हुआ तब क्यों बोले
मन मस्त हुआ तब क्यों बोले
हीरा पायो गाँठ गँठियायो
बार बार वाको क्यों खोले
हलकी थी तब चढ़ी तराजू
पूर भई तब क्यों तोले
सुरत कलारी भइ मतवारी
मदवा पी गई बिन तोले
हंसा पाये मान सरोवर
ताल तलैया क्यों डोले
तेरा साहेब है घट माहीं
बाहर नैना क्यों खोले
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
साहेब मिल गये तिल ओले
~कबीर साहब
“मन मस्त हुआ तब क्यों बोले”
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मन मस्त हुआ तब क्यों बोले → जब भीतर का मन शांत और पूर्ण हो गया, तब बोलने की ज़रूरत कैसी?
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भावार्थ:
जब रस मिल जाए, वाणी रुक जाती है। शब्द केवल तब तक निकलते हैं जब खोज बाकी है। जो मिल गया, वह मौन हो गया। प्रेम और सत्य जहाँ पूर्ण हैं, वहाँ अभिव्यक्ति अर्थहीन है।
“हीरा पायो गाँठ गँठियायो,
बार बार वाको क्यों खोले”
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हीरा पायो गाँठ गँठियायो → जब परम सत्य (हीरा) मिल गया और उसे भीतर सुरक्षित बाँध लिया,
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बार बार वाको क्यों खोले → तो बार-बार वह गाँठ क्यों खोली जाए, क्यों दिखाया जाए?
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भावार्थ:
ज्ञान या प्रेम का प्रदर्शन करना उसका अपमान है। जो पा लिया उसे जताना सस्ता काम है; असली धन भीतर की शांति बनकर बस जाता है।
“हलकी थी तब चढ़ी तराजू,
पूर भई तब क्यों तोले”
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हलकी थी तब चढ़ी तराजू → जब भीतर कमी थी, तब तुलना की जाती थी।
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पूर भई तब क्यों तोले → जब पूर्णता आ गई, तो अब तौलने का क्या अर्थ?
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भावार्थ:
जो अपूर्ण है वही तुलना करता है। जो पूर्ण हो गया — जो “राम” या “सत्य” से भर गया — उसके लिए कोई मानक नहीं बचता, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहती।
“सुरत कलारी भइ मतवारी,
मदवा पी गई बिन तोले”
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सुरत कलारी → चेतना अब मदिरा बनाने वाली हो गई है।
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मदवा पी गई बिन तोले → अब वह प्रेम की मादकता बिना मापे पी गई।
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भावार्थ:
यह प्रेम और भक्ति का प्रतीक है — जब चेतना प्रभु-रस में इतनी डूब जाए कि मापने की भी ज़रूरत न रहे। साधक तब गणना छोड़ देता है, तैरने नहीं, डूबने लगता है।
“हंसा पाये मान सरोवर,
ताल तलैया क्यों डोले”
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हंसा पाये मान सरोवर → आत्मा (हंस) जब मान सरोवर — परम चैतन्य — तक पहुँच जाए,
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ताल तलैया क्यों डोले → तो फिर छोटे तालाबों में क्यों भटके?
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भावार्थ:
जब बड़ा मिल गया, तब छोटे मोहों में क्यों जाना? जब परम मिला, तो साधन, पूजा, विवाद सब छोटे हो जाते हैं। यह भेद-बुद्धि की समाप्ति है।
“तेरा साहेब है घट माहीं,
बाहर नैना क्यों खोले”
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तेरा साहेब है घट माहीं → तेरा राम, परमात्म तत्व, भीतर ही है।
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बाहर नैना क्यों खोले → फिर आँखें बाहर क्यों दौड़ रही हैं?
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भावार्थ:
खोज बाहर नहीं, ध्यान भीतर। जो बाहर ढूँढता है वह कभी नहीं पाता, क्योंकि मिलन अंतर्मुखता में है। यह ध्यान का मूल सूत्र है — दृष्टि भीतर मोड़ो।
“कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
साहेब मिल गये तिल ओले”
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साहेब मिल गये तिल ओले → कबीर कहते हैं — जब तनिक भी भीतर शुद्धता आई, वहीं प्रभु मिलन घट गया।
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भावार्थ:
सत्य कोई समय लेने वाली प्रक्रिया नहीं — वह तत्क्षण घटता है जब चाह और खोज शांत होती है। बस एक क्षण का शुद्ध मौन, और उसमें पूरा साहेब समा जाता है।
सार (आचार्य प्रशांत-शैली में):
कबीर कह रहे हैं — “खोजना बंद करो। बोलना बंद करो। तुलना बंद करो। जब तुम सहज हो जाते हो, वही राम मिलन की अवस्था है। भीतर जो मौन है, वही सत्य है। बाहर कुछ नहीं।” यह पद अहंकार से आत्मा तक की यात्रा नहीं, बल्कि अहंकार के समाप्त होने का उत्सव है।