माया तजूं तजि नहिं जाइ

माया तजूं तजि नहिं जाइ

माया तजूं तजि नहिं जाइ,
फिर फिर माया मोहि लपटाइ।

माया आदर माया मान,
माया नहिं तंह ब्रह्म ज्ञान।

[[माया रस, माया कर जान]],
माया कारनि तजे परान।

माया जप तप माया जोग
माया बाँधे सबहि लोग।

माया जल थलि माया अकासि,
माया व्यापी रही चहुं पासी।

माया पिता माया माता,
अतिमाया अस्तरी सुता।

माया मारि करै ब्योहार,
कबीर मेरे राम अधार।

~संत कबीर


भजन:

“माया तजूं तजि नहिं जाइ,
फिर फिर माया मोहि लपटाइ।”

  • माया तजूं → मैं माया (भौतिक मोह) को छोड़ना चाहता हूँ
  • तजि नहिं जाइ → लेकिन यह माया छूटती ही नहीं
  • फिर फिर माया मोहि लपटाइ → बार-बार माया मुझसे चिपक जाती है

भावार्थ: मनुष्य चाहकर भी संसारिक मोह-माया से मुक्त नहीं हो पाता। माया बार-बार आकर्षित करती है।


“माया आदर माया मान,
माया नहिं तंह ब्रह्म ज्ञान।”

  • माया आदर → आदर भी माया है
  • माया मान → सम्मान भी माया का रूप है
  • माया नहिं तंह ब्रह्म ज्ञान → जहाँ माया है, वहाँ ब्रह्म (ईश्वर) का सच्चा ज्ञान नहीं हो सकता

भावार्थ: जो व्यक्ति आदर-सम्मान की माया में फंसा है, उसे आत्मज्ञान नहीं हो सकता। माया ज्ञान की सबसे बड़ी रुकावट है।


“माया रस, माया कर जान,
माया कारनि तजे परान।”

  • माया रस → इंद्रियों का सुख भी माया है
  • माया कर जान → उसे करने वाला (संचालक) भी माया है
  • माया कारनि तजे परान → कुछ लोग माया के कारण अपने प्राण भी त्याग देते हैं

भावार्थ: माया इतनी प्रबल है कि उसके मोह में लोग जान तक दे देते हैं। सारी इच्छाएँ, सुख, कामनाएँ इसी माया के कारण हैं।


“माया जप तप माया जोग,
माया बाँधे सबहि लोग।”

  • माया जप तप → जप और तप भी माया में फँस सकते हैं
  • माया जोग → योग (साधना) भी माया बन सकता है
  • माया बाँधे सबहि लोग → माया ने सभी लोगों को बाँध रखा है

भावार्थ: यदि इन साधनों (जप, तप, योग) का सही उपयोग न हो, तो वे भी अहंकार का कारण बनकर माया ही हो जाते हैं। माया से कोई अछूता नहीं।


“माया जल थलि माया अकासि,
माया व्यापी रही चहुं पासी।”

  • माया जल थलि → जल और पृथ्वी — सब में माया है
  • माया अकासि → आकाश में भी माया व्याप्त है
  • माया व्यापी रही चहुं पासी → माया चारों ओर फैली हुई है

भावार्थ: यह सम्पूर्ण सृष्टि माया से आच्छादित है। इससे भाग पाना अत्यंत कठिन है।


“माया पिता माया माता,
अतिमाया अस्तरी सुता।”

  • माया पिता माया माता → माता-पिता भी माया का ही रूप हैं
  • अतिमाया अस्तरी सुता → पत्नी और पुत्री अत्यधिक माया हैं

भावार्थ: नातेदारी, प्रेम और संबंध भी माया के जाल हैं, जो व्यक्ति को ईश्वर से दूर रखते हैं।


“माया मारि करै ब्योहार,
कबीर मेरे राम अधार।”

  • माया मारि → माया को मारकर (दूर करके)
  • करै ब्योहार → मैं व्यवहार करता हूँ (जीवन जीता हूँ)
  • कबीर मेरे राम अधार → कबीर कहता है: मेरे लिए राम (ईश्वर) ही एकमात्र आधार हैं

भावार्थ: सच्चा संत माया से दूर रहकर ही जीता है। कबीर कहते हैं कि उन्होंने माया को त्याग दिया है और अब उनका जीवन केवल राम पर आधारित है।


✨ संपूर्ण भावार्थ:

यह भजन बताता है कि माया (संसारिक मोह) सब जगह है — शरीर, संबंध, साधना, विचार — हर क्षेत्र में। इससे छुटकारा पाना कठिन है, क्योंकि यह बार-बार लिपटती है। लेकिन यदि कोई सच्चा साधक माया से ऊपर उठ जाए, तो वह ईश्वर को आधार बनाकर सच्चा जीवन जी सकता है — जैसे कबीर जीते हैं।