राम बिन तन की ताप न जाई

राम बिन तन की ताप न जाई

राम बिन तन की ताप न जाई,
जल मे अगन उठी अधिकाई ।

तुम्ह जलनिधि मैं जलकर मीना,
जल में रही जलही बिन पीना ।

तुम्ह पिंजरा मैं सुवना तोरा,
दरसन देहु भाग बड़ मोरा ।

तुम्ह सतगुरू मैं नौतम चेला,
कहै कबीर राम रमु अकेला ।

~ कबीर साहब


“राम बिन तन की ताप न जाई,
जल मे अगन उठी अधिकाई।”

  • राम बिन तन की ताप न जाई → जब तक जीवन में सत्य का अनुभव नहीं होता, यह भीतर की बेचैनी मिटती नहीं।

  • जल मे अगन उठी अधिकाई → जैसे पानी में भी आग लग जाए — शांति के बीच भी अस्थिरता जलती रहती है।

  • भावार्थ:
    जो राम (सत्य) से कटा है, उसके भीतर शांति असंभव है। बाहर कितना भी ठंडा जल हो, भीतर का ताप नहीं रुकता। जब तक सत्य से जुड़ाव न हो, मन जलता रहेगा — बाहर साधन होंगे, भीतर सुलगन।


“तुम्ह जलनिधि मैं जलकर मीना,
जल में रही जलही बिन पीना।”

  • तुम्ह जलनिधि → तुम ही चेतना का सागर हो।

  • मैं जलकर मीना → मैं मछली की तरह तुम्हारे जल में ही जीवित हूँ।

  • जल में रही जलही बिन पीना → फिर भी उस सागर में रहते हुए जल (सत्य) से प्यासा हूँ।

  • भावार्थ:
    मनुष्यता की त्रासदी यही है — हम सत्य के भीतर ही हैं, फिर भी उसे नहीं पीते। अस्तित्व में डूबे होते हैं, लेकिन उसे देखते नहीं। मछली सागर में है, और प्यास से व्याकुल है — यही आत्मविस्मृति है।


“तुम्ह पिंजरा मैं सुवना तोरा,
दरसन देहु भाग बड़ मोरा।”

  • तुम्ह पिंजरा → यह संसार, यह देह — तुम्हारा ही बना हुआ है।

  • मैं सुवना तोरा → और मैं उस पिंजरे में बंद तुम्हारा ही पाखी हूँ।

  • दरसन देहु भाग बड़ मोरा → कृपा कर अपनी झलक दे — यही जीवन का सर्वोच्च सौभाग्य है।

  • भावार्थ:
    यह देह और संसार राम (सत्य) की रचना है, और आत्मा उसी की चिंगारी। साधक विनम्र होकर कहता है — “मैं बंद हूँ तुम्हारे ही बनाए पिंजरे में, अब तुम्हारा दर्शन ही मुक्ति है।”


“तुम्ह सतगुरू मैं नौतम चेला,
कहै कबीर राम रमु अकेला।”

  • तुम्ह सतगुरू मैं नौतम चेला → तुम ही सच्चे गुरु हो, मैं अधम शिष्य।

  • कहै कबीर राम रमु अकेला → कबीर कहते हैं — सत्य में रम जाना ही समर्पण है; वहाँ कोई “दूसरा” नहीं बचता।

  • भावार्थ:
    गुरु, राम, सत्य — सब एक ही हैं। जब मन उस एक में लीन हो जाता है, तब न कोई शिष्य रहता है, न गुरु। सब भेद गल जाते हैं। प्रेम, ज्ञान और अस्तित्व — एकरस हो जाते हैं।


सारतत्व (आचार्य-शैली में):
कबीर कह रहे हैं — “जब तक सत्य भीतर स्थापित नहीं, तब तक मन दुख में जलता रहेगा। तुम हो उसी सत्य-सागर में, फिर भी प्यासे रहते हो क्योंकि जान नहीं पाते कि जल तुम्हारे भीतर ही है। देह और संसार मात्र पिंजरा हैं — उस पार का अनुभव तभी संभव है जब तुम सिर झुकाकर, शून्यता में मिल जाओ। तब कोई अग्नि नहीं, कोई बेचैनी नहीं — बस राम, अकेला और पूर्ण।”