समझ देख मन मीत पियरवा

समझ देख मन मीत पियरवा

समझ देख मन मीत पियरवा
आशिक हो कर सोना क्या रे ?

पाया हो तो दे ले प्यारे
पाय पाय फिर खोना क्या रे?

रूखा सूखा गम का टुकड़ा
फीका और सलोना क्या रे ?

जब अँखियन में नींद घनेरी
तकिया और बिछौना क्या रे ?

कहैं कबीर प्रेम का मारग
सिर देना तो रोना क्या रे ?

~ कबीर साहब


“समझ देख मन मीत पियरवा
आशिक हो कर सोना क्या रे ?”

  • समझ देख मन मीत पियरवा → तू समझ और विवेक से देख, ओ मेरे प्यारे!

    • (समझ देख -> विवेक और ध्यान से जीवन को देखना, समझना)
  • आशिक हो कर सोना क्या रे? → आत्मप्रेमी होकर केवल शारीरिक विश्राम से क्या लाभ?

    (आशिक हो कर सोना -> आत्मिक प्रेम और समर्पण में जीने का मार्ग। केवल शारीरिक विश्राम से कोई वास्तविक सुख या शांति नहीं मिलती। [[संघर्ष]] भी प्रेम में जरूरी होता है । )

  • भावार्थ:
    केवल शारीरिक विश्राम से मन को शांति नहीं मिलती; जब तक मन में प्रेम और ज्ञान की गहरी अनुभूति नहीं होती, तब तक वास्तविक सुख प्राप्त नहीं होता।


“पाया हो तो दे ले प्यारे
पाय पाय फिर खोना क्या रे?”

  • पाया हो तो दे ले प्यारे → अगर तुझे कुछ प्राप्त हो गया है, तो उसे बाँट दे।
  • पाय पाय फिर खोना क्या रे? → यदि तू एक ही चीज बार-बार प्राप्त करता है, फिर खो देता है, तो क्या मिला?
  • भावार्थ:
    जो वस्तु प्राप्त हो, उसे दूसरों के साथ बाँटने में ही सच्ची खुशी है। संसार में चीजों का सापेक्ष और अस्थायी महत्व है। बार-बार प्राप्त करना और फिर खो देना, इस संसार का चक्कर है।

“रूखा सूखा गम का टुकड़ा
फीका और सलोना क्या रे?”

  • रूखा सूखा गम का टुकड़ा → यह जीवन में जो दुःख और कष्ट हैं, वे केवल सूखे और कठोर हैं।
  • फीका और सलोना क्या रे? → दुख की यह स्थिति सुन्दर और आकर्षक नहीं हो सकती।
  • भावार्थ:
    संसार के दुखों का कोई स्थायी आकर्षण नहीं है। वे न केवल असहनीय हैं, बल्कि हमेशा फीके और नीरस होते हैं। इन्हें स्थायी मानना और संलग्न होना भ्रम है।

“जब अँखियन में नींद घनेरी
तकिया और बिछौना क्या रे?”

  • जब अँखियन में नींद घनेरी → जब आँखों में गहरी नींद हो,

    (हर्दया में गहरा आत्मप्रेम)

  • तकिया और बिछौना क्या रे? → तो तकिया और बिछौना, बिस्तर का आराम, क्या मायने रखता है?

    (तब बाहरी भौतिक आराम का कोई अर्थ नहीं रहता।)

  • भावार्थ:
    जब भीतर की शांति और संतोष की अनुभूति हो, तो बाहरी सुख-सुविधाओं की कोई आवश्यकता नहीं रहती। असली विश्राम और शांति भीतर ही है, न कि बाहरी भोगों में।


“कहैं कबीर प्रेम का मारग
सिर देना तो रोना क्या रे?”

  • कहैं कबीर प्रेम का मारग → कबीर कहते हैं, प्रेम का मार्ग ऐसा है,
  • सिर देना तो रोना क्या रे? → अगर इसे अपनाते हुए अपना सिर देना पड़े, तो दुःख क्यों?
  • भावार्थ:
    प्रेम का मार्ग त्याग और समर्पण का है। इसमें अपने अहंकार और आत्मममता का बलिदान करना होता है। जो प्रेम में समर्पित होता है, उसे किसी भी कष्ट या बलिदान से कोई घबराहट नहीं होती।

संक्षेप में:
कबीर साहब ने इस भजन के माध्यम से संसार के अस्थिर सुखों और भौतिकता से परे, प्रेम, त्याग, और समर्पण के मार्ग की ओर इंगीत किया है। उन्होंने यह बताया कि जब तक मनुष्य बाहरी सुखों को छोड़, आंतरिक शांति और प्रेम की ओर नहीं बढ़ता, तब तक असली सुख और मुक्ति नहीं मिल सकती।