ना मैं धर्मी नाहिं अधर्मी
ना मैं धर्मी नाहिं अधर्मी
ना मैं धर्मी नाहिं अधर्मी,
ना मैं जती ना कामी हो ।
ना मैं कहता ना मैं सुनता,
ना मैं सेवक स्वामी हो ।।
ना मैं बंधा ना मैं मुक्ता,
ना मैं विरत ना रंगी हो ।
ना काहू से न्यारा हुआ,
ना काहू के संगी हो ।।
ना हम नरक लोक को जाते,
ना हम स्वर्ग सिधारे हो ।
सबहीं कर्म हमारो किया,
हम कर्मन ते न्यारे हो ।।
या मत को कोई बिरला बूझै,
सो अटल हो बैठा हो ।
मत कबीर काहू को थापै,
मत काहू को मेटो हो ।।
~संत कबीर