नहिं मानै मूढ़ गँवार, मैं कैसे कहूँ समझाय

नहीं माने मूढ गंवार

नहिं मानै मूढ़ गँवार, मैं कैसे कहूँ समझाय ।

टेक झूठे को विश्वास करत है, साँचे नहिं पतियाय ।

आतम त्यागि अनातम पूजत, मूरख शीश नवाय ।

सज्जन संग विमल गंगाजल, तेहि तज तीरथ जाय ।

अपनो हित अनहित नहिं सूझे, रही अविद्या छाय ।

कहैं कबीर प्रत्यक्ष न माने, ताको कौन उपाय ।

~ कबीर साहब